1 ( हिन्दी कविता) मेरा पगार कहाँ है साई? ( 1 मई मजदूर दिवस
पर विशेषरूप से घरेलू महिलाओं के लिए ) डा० कामिनी कामायनी ।
खुली बहस की बिगुल बजाकर
शहर गाँव बस्ती नगरी सब
पर्दे छोड़ सड़कों तक
आई
सहने में अब कौन भलाई ।
प्रेम पिपासी जलकुंभी सी
अपनी जड़ें कभी जमा न पाई
बदले पर्यावरण की पीड़ा सी
दबी लहर अब बाहर आई ।
अलंकार उपमान व्यर्थ के
होते रहे कारण अनर्थ के
बात बात पर तंज़ ही खाई
रंज व्यथा बस हाथ में आई ।
वारि वारि बलिहारी जाती
वजह
बेवजह दासी बन आती
उस पुरुष की उपेक्षिता सी
जिसको उसने नेह किया है
प्रेम ने उसको
दंड दिया है ।
कर्ण कुटीर विष बेधित वाणों
से
सहत्र बार चीरहरण किया है
बात बात पर धमकी देकर
बेघर कर फिर शरण दिया है ।
खुद पर कैसे अभिमान करेगी
क्यों गैर कोई सम्मान करेगा
मुंह मलिन विषाद की झाई
कई बार संकल्प लिया कुछ
मगर योजना हवा हवाई
आखिर उसको लाज क्यों आई ।
बंधुआ बेकस लाचार जिंदगी
लेती रही रफ्तार जिंदगी
गृह लक्ष्मी की ताज़ पहन कर
करती रही बस मौन बंदगी
मोह माया का कफ़न चढ़ा कर
होती रही बर्बाद जिंदगी ।
किस अदृश्य संपत्ति का लालच
सिकुड़ा सहमा रहा हाथ खर्च
कहीं कभी मध्यम से पंचम
जब सपनों ने ली अंगड़ाई
और हसरत ने बीन बजाई ।
भृकुटी तनी,
उठी तलवारें
चली खूब वारों पर वारें
खींचातानी नुक़ता चीनी
सबने थी औक़ात बताई
आखिर
कौन विपदा सी आई
मायके से कितना धन
पाई ।
कोर्ट अदालत भी कुछ बोले
शोषण या अपराध को तौले
क्यों करते हो घर वाली से
छोटी बात पर बड़ी लड़ाई ।
घर की बात क़यामत लाई
देते फिर किस किस को दुहाई ?
सुनने वाले भी क्या जाने
उनके क्यों भीषण दुख मानें
जिनके पाँव न फटी बेमाई ।
चलता
चक्र है सदियों का सब
विवश ,विकल मज़बूर हुए से
देते परिजन खूब दुहाई ।
ऐसे कैसे दिवस कटेंगे
जगह जगह कर्तव्य हंसेंगे
शोषक और शोषित के बीच की
बढ़ती जाती उग्र लड़ाई
खोद रही जो
गहरी खाई
आखिरी हद की नौबत क्यूँ आई ।
युग भी अब कुछ बदल
रहा सा
बस्ती का आतंक कुछ ढल रहा सा ।
मांगा है तो बस हक़ अपना
काम का घंटा चैन का सपना
घर द्वार के कामकाज का
धोने सीने ,रिश्ते बोने का
मेरी कमरतोड़ मेहनत का है अब
चुकता करना पाई पाई
।
इसे महज़ इक हवा न समझो
सदियों ने यह अनल लगाई
दूर देश से उड़ते उड़ते
यह चिंगारी हम तक आई
मेरा अधिकार कहाँ है साई ?
मेरा पगार कहाँ है साईं ?
@(c) डा० कामिनी कामायनी ॥
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