मंसूर के पीले फूल और अभिशप्त यक्षिणी
यूं ही व्यतीत हुए कितने दिनों , महीनों ,सालों ,बल्कि दशकों , बाद भी ऊंचे ऊंचे पहाड़ियों और शान से सिर उठाए ,प्रहरी से खड़े पेड़ों से घिरे , कैमल बैक हिल्स पर उस नवविवाहित युगल को देख कर एक क्षण के लिए उसका यूं सिहर जाना स्वाभाविक ही रहा होगा ।मस्तिष्क के किसी कंदरे में कराहता कोई टीस यादों और हक़ीक़त के मजबूत क़िले की दीवार फांद कर दिखा गया था भुवन को ,भुवन को नहीं ,बल्कि उसकी झलक को !अरे नहीं ,नहीं भुवन कहाँ ! वह अब तक वैसा ही स्लिम ट्रिम किशोर रहा होगा क्या ? मगर हमशक्ल ! शायद हाँ । इस करोड़ों अरबों की भीड़ वाली दुनिया में कभी किसी की हंसी ,किसी की आँखें ,चाल चलन ,हाव भाव ,क्या शक्ल तक इतना मिलता जुलता है कि मनुष्य का दिग्भ्रमित हो जाना स्वाभाविक ही है । मगर उसकी झलक उसे दिल दहला देने वाली व्यतीत की झलक तो दिखला ही गई थी । सच तो यह है कि वह दिल में बसी उस खंडित इमारत की आभासी झलक देखने की असीम तमन्ना लिए ही तो हजारों मील दूर से माईग्रेटेड बर्ड की भांति उड़ती चली आती है साल दर साल । और हर बार अपने पीछे छूटे हुए पन्ने का एक एक हर्फ पढ़ती है ,दुहराती रहती है ,कुछ भी न छूटने पाए जिंदगी के अंत तक भी इसी आस में। आज फिर व्यतीत के कई पन्ने अप्रत्याशित आई इस छोटी सी पहाड़ी आँधी से घबड़ाकर अपना मुंह खोलने को बेताब हो गई थी जैसे ।
बैजंती फूल से पीले साड़ी पर उभरे लाल लाल बूटे, गले में लाल मोतियों की माला ,आँखों में काजल,दोनों कलाईयों पर भरी भरी चूड़ियाँ, माथे पर जूड़ा और माँग में सिंदूर,ऐसे ही तो वह उस ना भूलने वाली रात भुवन के पुरखों वाली हवेली में, भारी पाज़ेब और महावर रंगे पाँवों से सहमती हुई सी आई थी। उसके हल्दी से भीगे हथेली की छाप भी वहीं कहीं किसी पवित्र दीवार पर सजा दी गई थी ,मगर वह उसके फीके रंग की उदासी नहीं भाँप सकी थी और न वहाँ की दमघोंटू वातावरण का अनुमान ही लगा पाई।उसे क्या भुवन को भी उस जल्लादी खामोशी के पीछे की कहानी का कहाँ कुछ आभास था। वह तो उसे उड़ा कर दुनिया से दूर,सबकी निगाहों से दूर, बेहद दूर, भाग जाने के लिए उताहुल होता चला जा रहा था ।
शायद दूसरे या तीसरे , नहीं ,नहीं दूसरे दिन के सांध्यबेला को ही
खुशी और भय मिश्रित असीम उत्साह को
साथ लिए कालिंपोंग की पहाड़ी पर बने होटल के उस कमरे मेँ वे
दोनों मौजूद थे। खिड़की खुली थी,नितंब
तक झूलते ,काले
कजरारे ,रेशमी
से मुलायम ,उसके
बाल बाहर से आती हवा से खिलवाड़ कर रही थी
और वह दूर बहुत दूर की वादियों में डूबी खड़ी थी जैसे। उतुंग कंचनजंघा के सीने का दर्द धूएँ की शक्ल लेती घनीभूत होती
जा रही थी।
दो पहाड़ियों देओलो
और दुरपीन को जोड़ने वाली सुंदर रिज टाउन कलिंगपोंग
।ऊपर की दुनिया से बेखबर नीचे खामोश
तीस्ता सिक्किम और
कलिङ्ग्पोंग के बीच से खेल
करती हुई अपने मनोहारी अंदाज में अपनी ही धुन में ,बहती चली जा रही थी।
कलिंग पोंग को अपनी आँखों से जी भर कर देखने की
अभिलाषा भी उसी की थी और उसी दिन उपज गई थी ,जब कक्षा में इसके बारे में पढाते पढ़ाते भावुक कवयित्री
शिक्षिका महोदया भाव विभोर हो उठी थी ।उनकी आँखों में जैसे सारा का सारा हिमाद्रि झलक उठा हो । बस उसी क्षण के संकल्प को पूरा करने प्रकृति का महान प्रेमी भुवन गुआहाटी से अपनी गाड़ी खुद चला कर वहाँ तक आया था । वह स्वर्णिम
क्षण ,प्रकृति
के अप्रतिम वैभव के मध्य दो मासूम अधीर प्रेमी ।भुवन का प्रथम स्पर्श ! उसका रोम
रोम ,इतने
वर्षों बाद भी आज सिहर उठा था ।
दिवाकर उसे होटल
से बाहर खड़ा देखकर ज़ोर से आवाज़ देकर कहा
था ‘ इतनी रात में हिमालय
की गोद में ही सोने का इरादा बना रही हो क्या हनी? कितना धुंध है ,स्ट्रीट लाईट तक नहीं दिखाई पड़ता । चलो
भीतर”। और उसका हाथ खींच कर अंदर कमरे में ले
आया था । उसे यूं खामोश ,उदास
देख कर उसके लिए ड्रिंक तैयार किया , “ शायद तुझे नींद आ जाए”। उस रात दिवाकर के साथ होने पर भी भुवन उसके मस्तिष्क पर साधिकार
कब्ज़ा
जमा चुका था । समझ नहीं पा रही थी वह कहाँ है अभी ? मसूरी में या कलिंपोंग में । आँखों के
आगे स्याह अंधेरे में भी कुछ चमकते हुए सितारे उसे मदहोश बना रहे थे या होश में ला
रहे थे ।
सुबह देर से आँखें खुली थी । दिवाकर ने चाय का
प्याला बढाते हुए कहा था , “
क्या हो जाता है तुम्हें ,पहाड़ों
को देख कर अभिशप्त यक्षिणी । “अभिशप्त यक्षिणी”
वह ठठाकर हँस पड़ी थी ,’
बहुत सटीक उपमा दिया तूने । वास्तव में मैं यक्षिणी ही हूँ कालीदास की यक्षिणी ,मेघदूत भेजने वाली यक्षिणी ,हाँ अभिशप्त यक्षिणी ,और कोई नहीं । तभी तो मैं अपने मुकद्दर
से लड़ती हुई निरंतर रोते जा रही हूँ”।और वह हिचक हिचक कर रोने लगी थी । मगर वह अब अपनी
कमजोरी का मजमा नहीं लगाना चाहती। पीछे छूटा वक्त उसे क्या ,वही उसे मुंह चिढ़ाने के लिए तैयार थी । उसने
ऐसा ही संकल्प भी किया था कभी ।
पदमा साल
में दो बार भारत के पहाड़ या समुद्र
की यात्रा करती ।वैसे पहाड़ और समंदर के बारे में
उसका मानना था ,दोनों
जीवन के दो छोर हैं ,एक
अनंत ऊंचाई ,दूसरी असीम गहराई । हालाकि अब तो
इन्हें मापा भी जा सकता है ,मगर जीवन तो किसी भी मापदंड से परे है ।
दिवाकर कुलबुला कर रह जाता ,उसे महानगरों की रंगिनियाँ बेहद पसंद
थी
,मगर सिर्फ विदेशों की
,लेकिन
क्या करता ,मालकिन तो पद्मा ही थी । और
यह दोनों का एक तरह से आपसी संधि ही था ,कि एक दूसरे के स्वतन्त्रता का बलात अपहरण नहीं करेंगे और न
करने देंगे ।
इतनी सारी पहाड़ियों में न जाने क्यूँ उसे मसूरी की बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब था कि
हिमालय के पहाड़ और पहाड़ियाँ ही सबसे ज्यादा आकर्षित करती
थी । रिटायरमेंट के बाद यहीं लेंडुर में एक बंगला खरीदेगी और बाकी जिंदगी इन्हीं पहाड़ों के आगोश में
व्यतीत कर देना है ।बंगलो वह देख भी रही थी । उसकी यही एक मात्र दिली तमन्ना तो सबको पता ही था
। पदमा की सहेलियाँ भारवि ,केतकी
,पायल और उन सबके पति , हितेश को छोड़कर, सभी विदेशी पासपोर्ट होल्डर थे और अब केनेडा के सिटीजन भी हो गए थे । मगर कहीं न
कहीं अपने मिट्टी का ,जननी
तो नहीं रही मगर जन्मभूमि तो है , पुरानी यादों के पिटारों ,का खिचाव उन्हें भारत बहाने बहाने से पुकार
लेता था ।
सब इकट्ठे ही आने
जाने का प्रोग्राम बनाते ।हाँ मात्र पायल और उसके पति रोहित का पिछला कोई इतिहास
नहीं था,वे
विदेशों में ही पले बढ़े थे । यहाँ पुरुषों की कुछ खास नहीं पर ,महिलाओं की ,
नहीं शायद दोनों की ही मर्जियां चलती
थी । चले भी क्यों न वे सभी उन्मुक्त ,हसीन
और जवान के साथ कमाऊ भी थे । ‘ हाँ यार ,जमाना बदल गया है । अब तो इंडिया में भी
सब जगह नारी जागृति की चर्चा अपने उठान पर है ।ये जहां रहे ,हमें तो वहीं रहना पड़ेगा’। वैसे कहने के लिए तो दिवाकर बड़ी मासूमियत से एक एक शब्द चबा चबा कर
बोल जाता ,तो सभी एक साथ ज़ोर से हंस पड़ते ,जैसे वाकई पते की बात कही हो ।
‘हमारी दोस्ती तो कौलेज के जमाने से है ।अपने
आप को कितना भी मॉडर्न मान लें ,पर
इतनी आसानी से ये टूट जाएगी क्या ?’ माल रोड पर हल्की हल्की बारीश में
घूमते हुए भारवि के कथन में अपनी स्वीकृति की मुहर लगते हुए गीता ने कहा था , “
यार जमाने को दिखाना है ,हम
भी कितने बुलंद हौसले वाले हैं ,दबे
कुचले ,जमाने
भर से सताए ,आँसू
बहाती दीन हीन अबला नारी नहीं’।
केतकी प्रकृति के खूबसूरत नजारों पर अपनी नजरें टिकाए हुई बोल पड़ी थी ,’ “
,वैसे दुनिया वालों ने
तो भरसक प्रयास किया ही था ,कि
हम कहीं किसी नदी तालाब ,ज़हरीली औषधि का
शरण लेकर दृश्य पटल से ओझल हो जाएँ ,हैं न । ,खैर छोड़ इन बातों को ,मैं भी कौन सा स्यापा लेकर बैठ गई । हम कौन से इस मिट्टी पानी के ,रीति रिवाज के चंगुल से बंधे हैं अब । इस खूबसूरत समा को और भी सुंदर बनाने के लिए चल
दो घूंट जिंदगी के पी लेते हैं ,वरना
अतीत के कीचड़ में,दबी
धँसी ,यहीं
घुंट घुंट कर मर जाएंगे”।
माल रोड के पास ही पाईन वृक्षों की ओट में उनका
होटल था जहां वे ठहरे थे । वापस आकर वे रेस्त्रों बार
में बैठ गए थे और सभी अपने अपने अंदाज में वहाँ आकर चहकने बहकने के लिए उतावले से
हो चले थे । इलाका और होटल दोनों काफी पौश था ,यहाँ बस यही लोग ठहरे हुए थे ,वैसे दो आस्ट्रेलियन भी थे ,मगर वे कभी दिखाई ही नहीं दिए ।बार काउंटर पर खड़े खड़े एक के बाद एक पैग चढाते
चढ़ाते वे लोग सुध बुध खोते हुए इतने हिंसक होते
जा रहे थे ,कि
वहाँ के स्टाफ ,वेटर
मैनेजर सभी सकते में आ गए । न जाने कौन सी दुर्घटना हो जाय ,वैसे यहाँ का इतिहास इस बात की ओर संकेत
देने लगा था । बास्टर्ड ! बिच! रास्कल! जैसे भयंकर शब्दों से परे भी कुछ शब्द ऐसे थे जो उन
काँच की दीवारों को चीरते हुए सीधे शमशान का रास्ता दिखाने पर उताहुल था । होटल
वालों की मुस्तैदी से कम ही ग्लास टूटे
होंगे । फटाफट नीबू पानी के साथ और कुछ दे कर उन्हें काबू में किया गया । फिर ,उन्हें स्ट्रेचर पर एकाएकी लाद कर उनके कमरों में पहुंचा दिया गया था । काउंटर पर खड़ी लड़की सोच रही थी । पता नहीं ऐसा भी होता होगा क्या ?सिर्फ पैसों की नहीं ,पर अपने, परिवार से, समाज से, आप से,विद्रोह ,मोह भंग
की हृदय विदारक तस्वीर तो यह जरूर लग रही थी
।
सबसे ज्यादा नशा पद्मा और दिवाकर पर चढ़ता । वे
दोनों अपने आप को निट पीने वाले महान पियक्कड़ साबित कर चुके थे । पीने के बाद
दोनों एक दूसरे के साथ जितना भी ज़लील हरकतें कर सकते थे ,करते थे । मल्टीनेशनल कंपनी में काम
करने वाली पद्मा दिवाकर के लिए कभी भी पति शब्द का प्रयोग नहीं करती थी , वैसे भी ,किसी मंदिर के प्रांगण में ही शायद यूं
ही उसने उसे सिंदूर लगा कर पत्नी का ठप्पा लगा दिया था ,वह भी बहुत बाद में ,बरसों साथ रहने के बाद ही ,पद्मा
तो यह भी नहीं चाहती थी ,मगर
अपने बच्चे को उसके दोस्तों ,स्कूल आदि के
सामने प्रस्तुत करने के लिए दिवाकर ने यह सब किया था ।
दिवाकर ! महत्वाकांक्षा
के शिखर पर बैठा । कभी एक ही जुनून सवार था ,फिल्म बनाने का ,उसने कई कहानियों पर काम भी किया था ,अपना सारा जमा पूंजी भी धोखा और ठगी के नाम पर न्योछावर कर दिया ,मगर कुदरत ने वहाँ
उसका दरवाजा बंद कर दिया था ,असीम
निराशा और हतोत्साह के कारण अपने आकर्षक नौकरी से भी हाथ धोना पड़ गया । इस भयानक
तंगी और उसके शराब की बुरी आदत को झेलती ,
मारपीट गाली गल्लोज़ से आजिज़ आकर पत्नी ने भी उस नर्क से निकल कर विदेश
अपने भाई के पास जाना ज्यादा मुनासिब समझा था ।
परिवार वाले जिस
समय एक एक कर के साथ छोड़ते गए ,उस समय पद्मा का मजबूत हाथ उसे जीवन के डूबते भंवर से निकालने में कामयाब
साबित हुआ था । मुंबई से वह दिल्ली आ गया । वह यहीं थी । निराशा के भयंकर गर्त
में
डूबा
, उसमें कोई काम
करने की अभिलाषा ही नहीं थी । दोनों का एक
बच्चा संसार में आ चुका था । अब उसे घर बैठ बेबी सिटिंग करने में ही जीवन की खुशियाँ मिलने लगी थी ,जैसे ।
विशालकाय शरीर ! शराब
पी पी कर आँखों के नीचे के लटके थैले ,सूजा हुआ चेहरा !एक
खौफनाक व्यक्तित्व बन कर रह गया था वह । जब नशे में नहीं भी होता ,ऐसी मोटी मोटी ,बिना सेंसर की हुई वजन दार गालियां देता
कि,शायद अनपढ़ ,गंवार झुग्गीवाले भी शरमा जाए ।
लेकिन ये लोग अनपढ़ नहीं ,देश के सबसे प्रसिद्ध संस्थानों में से कुछ थे
,अत्यंत पढे लिखे और शान से अपना
मस्तक उठा कर चलने वाले लोग थे ।एक
दूसरे के कमर में हाथ डाले टहलते हुए जब ये गंभीर चिंतन या वार्तालाप करते ,तब बातें तो उनकी टॉप क्लास की,क्वींस इंगलिश में ही होनी थी ।उस समय के बातचीत का विषय
भी उच्च फिलोसोफी ,अर्थशास्त्र ,मानवातावादी दृष्टिकोण , समाज को राजनीति को बदल डालने की उत्कट
अभिलाषा आदि भी विश्वस्तर की होती , मगर जब वे होश खो देते ,तब उनके मुंह से निकलने वाली गालियां अपने
छोड़ आए देश के याने भदेशी ही होती ।
ऐसा ही कुछ उन्मुक्त जंगली प्राणी जैसा जीवन जीने की
अभिलाषा लिए ,जब वे
लोग सुरकंडा देवी जाने की सोच रहे थे और धनोल्टी में , भिन्न भिन्न दिशाओं में जाकर अलग अलग दृष्टिकोण से प्रकृति का
अवलोकन करते हुए एक ही कमरे में ,रात बिताने का निर्णय लिया था ,तब उनकी खुशी यूं थी मानो उनका बचपन लौट
आया है और वे अपने नाना के घर छुट्टियाँ मनाने पहुंचे थे ।
केतकी का लटका हुआ
चेहरा देख कर पद्मा ने कारण जानना चाहा तो इशारे से भारवि ने मना करने के अंदाज में उसकी उंगली दबा दी थी ।उसे
अचानक अपने कालेज के दिन जेहन में धूम गए गए थे
उसने अपना कौफ़ी का मग उठाते हुए कहा ,तुम्हें पता है मैं आसाम की हूँ । वहाँ लड़कियों के
प्रथम ऋतुचक्र पर जिसे तुलोनी बिया कहते हैं ,छोटी मोटी
शादी के समान खूब उत्सव होता है ।दूर पास
के , सारे
सगे संबंधी ,
दोस्त ,पड़ोसी
सब मिलकर उसे उपहार और आशीर्वाद देने आते हैं । वह सज धज कर नई मेखला पहन कर देवी के समान
बैठी रहती है । एक तरह से इसे उसके परिपक्वता
और उर्वरता की घोषणा
समझी जाती है । सात दिनों तक चलने वाला इस उत्सव में खूब खान पान
होता था । हाँ ! समय के साथ इसका स्वरूप कुछ कुछ बदलता जा रहा है ,मगर यह अभी भी गौरव की बात है । स्त्री
रूपी कामाख्या माँ को भी होता है ऋतु
चक्र ,
वही तो वहाँ का प्रसिद्ध अंबु वाची पर्व कहलाता
है” ।
भारवि ने कहा,” हाँ यार ! ऐसा ही कुछ दक्षिण भारत में भी होता है”।
मगर काजल और सुगंधा का मुंह उतर गया , “
शायद इसीलिए पदमा और भारवि इतनी बोल्ड है । बचपन से बोल्ड । हमारे बिहार और उत्तर
प्रदेश में ऐसा कुछ रहता तो वहाँ की लड़कियां यूं अपराध भाव में नहीं बढ़ी होती ।
स्त्री होना अपराध नहीं लगता न” । दोनों ने एक दूसरे
की आँखों में देखते हुए कहा था ।
‘अरे यह यहाँ छु प कर बैठी हैं’ । केतकी, भारवि ,दिवाकर सभी आ गए थे । दिवाकर उसके गले
में हाथ डाल कर , मनुहार करता ,दुलारता ,पुचकारता कह रहा था ,’ सुरकंडा देवी नहीं जाना क्या ? बादलों की गोद में बैठने वाली हसीना”
। ‘ “जाना
है जान ,मगर
घंटे दो घंटे की मोहलत तो दे मेरे यार । मैं उन फूलों को निहार तो लूँ जी भर के ,उन पीले फूलों को ,क्या पता वह मेरा पिछला कोई और जन्म रहा
हो’।उसने
भी बड़े प्यार से अपना
फरमान सुना दिया था ॰ और
बिना उसकी ओर देखे वह दूर पास के उन पीले पीले फूलों को अपलक निहारती ही रह गई थी ।
“ अरे ! यह तो मंसूर
है !
हिमालय की तराई में उगने वाला मंसूर या मसूरी बेरी ,मसूरी झाड़ी, जो भी कहो , यह यहाँ की मौलिक वनस्पति है ,संपत्ति है ,और अपने मौलिकता पर शायद उन्हें गर्व भी
हो । दिखने में तो ऐसा ही लगता है
उसे ।
गुच्छेदार, लंबी टहनी में दोनों तरफ से लदे फदे , इसके
पीले फूल आपस में ही एक दूसरे के सौंदर्य पर मोहित हैं जैसे । और ,कुदरत का करिश्मा भी
देखिए ,एक ही पौधे में नर और मादा दोनों ,याने
की सृष्टि का सारा आकर्षण एक ही साथ । मिलने
की कोई बेचैनी नहीं ,बिछुड़ने
का कोई गम नहीं ,
जीना है तो साथ साथ । विलोपन भी साथ ही साथ । उल्लास ही
उल्लास ! कहीं कोई अतिरिक्त भय नहीं ।वाह क्या है सृष्टि का चक्र ।
गरमाते सूरज के साथ साथ, बर्फीले सूने प्रांगण
के विस्तृत कैनवास पर रंग भरते , फरवरी और मई के महीने में इसके खिलते ही
यहाँ की रौनक चौगुनी हो उठती है ।वही देखने के लिए ,जैसे पहाड़ों के ,ऊपर
से लाल टिब्बा भी झाँकने लगता है ।
कभी किसी समय
कालेज के दिनों में बॉटनी के प्रोफेसर के साथ
शोध करते समय सर ने ही बताया था ।वहाँ के स्थानीय मौलिक आदिवासियों ने कहानी सुनाई थी । इसके लाल से गहरे बैंगनी होते फल ,मगर मात्र देखने भर के ही । कहते हैं
शायद किसी ऋषि का अभिशाप है ,जहरीला
है यह । मात्र नयन सुख ले सकते हैं ,भक्षण करने योग्य नहीं । किसी का क्षुधा तृप्त करने का इसे सौभाग्य प्राप्त नही हो सका । “ वह किन्नोरी
महिला ने भी दिखाया था उस दिन सबको “। भारवि खुशी से उछल पड़ी
थी ।
वैसे यह प्रजाति दक्षिण चीन के पहाड़ी ढलानों ,के अलावा गानसु ,हुवान
हांगकांग आदि जगहों पर भी पाया जाता है । लेकिन वैज्ञानिकों का यह भी कहना था ,हिमालय में जड़ी बूटियों का अकूत भंडारण
भी है । क्या पता इसका क्या उपयोग हो सकता है । अभी शायद शोध के अंतर्गत रहा हो ।
मगर शोध से इतर ,वह तो सफ़ेद बरफ़ों से ढंके लाल टिब्बा के साथ साथ मंसूर के पीले फूल भी देखने के लिए आती है जो
उसे बार धीमे धीमे मादक
इशारों से जैसे ,बुलाती
रहती है । । पद्मा को अपनी जिंदगी के बेहद
करीब का हिस्सा जो यह सब लगता है ,अत्यंत
प्यारा हो उठा है उसके लिए । ।
अत्यंत
महत्वकांक्षी और संभ्रांत परिवार का दिवाकर की फिलहाल ,अपनी कोई ढंग
की नौकरी नहीं थी । उसने पद्मा के पैसे से इधर उधर की छोटी मोटी डाकुमेंटरी फिल्में फिर से ,बनाई थी ,मगर किस्मत का खेल यहाँ भी उसे परास्त
कर दिया था! कहीं कोई सफलता हाथ नहीं लगी ।
जब दफ्तर से थकी मांदी वह वापस अपने घर आती , उसका भयानक चेहरा पदमा को और भी आतंकित
कर देता । बोतलों के ढेर और सिगरेट के धुओं के बीच अपने अंधेरे कमरे में पड़ा पड़ा वह न जाने क्या क्या सोचता रहता । लाली
थी ही ,खाना पीना ,चाय काफी दे देती । पद्मा के आफिस से
आने के बाद ही उसकी दिनचर्या जैसे प्रारम्भ होती ,वे लोग दोस्तों से मिलते जुलते बाहर खाना खाते ।
,बिना
किसी शिकायत के जिंदगी ऐसे भी
कट जाती तो एक तरह से गनीमत ही थी । मगर बेरहम वक़्त ! न जाने किस किस जन्म का कौन कौन सा
कर्ज ,किसको
किसको चुकाना था । आसान सा दिखता रास्ता भी भयानक दिखने लगा था।
ऐसा तो
उसके जनक ने बीस साल पहले ही वहीं उस शहर के ,उस छोटे से घर में बैठे बैठे देख लिया था ।अपनी परम सुंदरी और प्राणप्रिय एक मात्र कन्या का ऐसा भविष्य ! उनकी सख्ती उनका ही प्राण ले बैठा । आठवी नौवीं
कक्षा के ये छात्र ,कुछ
ऐसा कर लेंगे ,और
खेल खेल में अपना हाथ जला कर जिंदगी भर के लिए बैठ कर पश्चताप के आंसुओं में
पिघलते चले जाएंगे । उस वक्त अनुमान करना नितांत मुश्किल था ।
पवन
को उसकी बुआ जो कचरी बाजार में रहती थी
, ब्रंहपुत्र नदी के किनारे से खींच लाई और उमामहेश की मंदिर में शादी करवा कर अपने विधायक भाई के
पाँव पकड़ लिए थे “ एकलौता बेटा है ,मान जा भाई । लड़की
देखो कितनी सुंदर ,दिव्य
परी । अब उतने दौलत वाली
की बेटी नहीं होने
से क्या हुआ”। भाई
तो चुप ! किसी तरह मान गया ,मगर
भाभी ! पवन की माँ ! कठोर ,कर्कश स्त्री
। उस सोलह बरस के लड़के के दिमाग को धोने में तनिक भी
कसर नहीं छोड़ी थी । बेटे की
हिचकिचाहट देख कर ,उसने
भी ब्रम्ह्पुत्र का सहारा लेना चाहा ,मगर अबकी बेटा ने उन्हें नदी की धार
से बचा कर ,उनके
शर्तों के आगे अपना सिर झुका कर, लौटा कर घर लाया था ।
नाबालिक का कौन सा ब्याह ! कानूनन
गलत है ,थाना पुलिस सब उनके
ड्राईङ्ग रूम में ।सबने बारी बारी से समझाया था पवन को, दूसरी अपने स्तर की तो करनी ही
होगी न । ,हाँ यह भी पड़ी रहेगी घर के किसी कोने
में,रखना है तो रख लो ।
परेश के मुंह से ऐसा सुनकर वह पंद्रह पूर्ण ,सोलहवें में कदम रखी कन्या प्रचंड बन गई थी ,उसने उसके हाथ तेजी से झिड़कते हुए अपने गाँव की ओर रुख कर लिया था ।
बौराई सी वह भयंकर दुख से ,अपमान से लांछना से और क्रोध से भी
, भीषण प्रतिशोध की
ज्वाला में धधकती हुई ,
कामाख्या मंदिर पहुंची थी । उन दिनों
माता का वार्षिक उत्सव अंबु वाची चल रहा था
। अजस्त्र भीड़ पता नहीं
दुनिया भर के मनुष्य यहाँ नीलाचल पर्वत पर
कैसे जमा हो गए । वह पास के बगलामुखी मंदिर की सीढ़ियाँ उतरती उस कंदरे में
पहुँच गई ,जहां
उसकी मौसी बचपन में जोगिन बन कर तपस्या कर रही थी ,एक बार वह उससे मिली भी थी ।जटाओं
के बड़े से जुड़े सिर पर
बनाए जीर्ण शीर्ण वस्त्र में वह तपस्विनी । एक दग्ध करती दृष्टि मात्र से बता दिया
था ‘ क्या प्रतिशोध लेगी ,प्रारब्ध का
लिखा कैसे
धोएगी । वह पागल हो जाएगा ,फिर
अगले जन्म भी यूं ही अधूरी रह जाओगी ।
तुम्हारा उससे कोई संयोग था भी कहाँ । जन्म जन्म की अभिशप्त अप्सरा , धरती पर इस
आखिरी जन्म को हँस के,
जी भर के भोग विलास में काट । वैराग्य के लिए तुम पैदा नहीं हुई हो”।
अविश्वास से उसने उसे घूरा था । तब हँसते हुए जोगिन ने कहा “
देख ! उस बकरे को बलि के लिए जा रहा था । लेकिन एन वक्त पर उस मन्नत मांगने वाले
मनुष्य का मन फिर गया और उसने इसे मंदिर परिसर में समर्पित कर दिया । यहाँ जितने कबूतर ,गाय
और अन्य जानवर है ,किसी
के भाग्य में उस समय मृत्यु नहीं लिखा था ,माता ने सबको जीवन दान दिला दिया”
। सामने जलते आग पर रखे तप कर हुए
लाल चिमटे से उसके हाथ को छुलाया
गया था ।
एकदम शांत ,स्थिर मन से वह वहाँ से घर लौट आई थी ।
वह उसके
जीवन का एक निर्णायक दिन था । नहीं वह किसी नदी तालाब का शरण नहीं
लेगी । फिर थकी हुई कदमों से पिता के घर
ही आई । यहाँ भी वह अकेली । सारे गम भूल कर सरस्वती ने उसे अपने गले लगाकर , मदद देना शुरू कर दिया था ।
कितनी सारी डिग्रियाँ ,उसे नौकरी की कभी कोई दिक्कत नहीं हुई
थी ,पैसे थे ,ऐश्वर्य था ,स्वतंत्र थी । वह सुखी थी ।
अपने कामरूप भूमि की अनेक अनोखी कहानियों को सुनकर ही तो उसका बचपन बिता था
।मगर
पवन तो बाहरी था । बाहर के
लोग के साथ साथ दिवाकर भी हँसते थे ,कैसे मनुष्य को भेड़ बकरिया बना दिया जाता होगा
किसी जमाने में ।
मगर आज के पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इस शोध पर लगे हुए हैं जिस तरह की
जिंदगी आज का मानव जी रहा है ,अगर
आने वाले कई साल तक वह इसी तरह जीता रहे ,तो हो सकता है धरती पर रहने वाले जीव उस
वातावरण में खुद को बनाए रखने के लिए अजीब रूप धारण
कर ले । अगर यह ‘फ्यूचर
इवोल्यूशन’
में
संभावना है ,तो अतीत में भी ऐसा ही तो कुछ हुआ होगा । ऐसा उसकी सहेली केतकी का ही मानना था,वह साईंटिस्ट जो थी ।
फरवरी
का महिना था । ,,आकाश उसके मस्तिष्क की भांति ही बादलों के
बड़े बड़े श्वेत श्यामल आकृतियों से भरा था
। और धरती हरियाली से । केतकी अपने पति ,जो कि एक मशहूर बिल्डर था ,अपने निजी हेलिकोप्टर से मसूरी जा रही
थी ।
पद्मा ने
सुना तो बौखलाती हुई सीधे दिल्ली आ गई “ बिन मेरे तू जाने की सोच भी कैसे सकती हो जबकि
मैं यही मुंबई में हूँ “। उसके लंबे बिखरे
बाल और निराशा के गर्त में डूबी हुई सी आँखें ,कुछ
भयानक सा संकेत करने लगा था ।
हेलिकॉप्टर में एक ही सीट खाली था जो इस गंभीर
स्थिति को देखते हुए केतकी के पति ने ही स्थगित कर दिया था ,दो दिन
की ही तो बात थी ,दिवाकर को रुकना पड़ा दिल्ली में
ही । अगले सप्ताह वे लोग कनाडा जाने वाले थे ।
केतकी
और अन्य लोग किसी काम से मौल की तरफ गए थे ।उन्हें हाथ हिला हिला के जैसे अलविदा
किया हो । उनका हेलिकॉप्टर बड़ी तेजी से अपना पंख घुमाता हुआ मात्र कुछ मिनटों के
लिए ही नीचे उस हेलीपैड पर उतरा था ,एक सहायक
ने उसे आगे का दरवाजा खोल कर ,सीट
बेल्ट पहना कर दरवाजा बंद कर दिया था । देहरादून तक जाते जाते मौसम सहसा भयानक
होने लगा था । हवा भीषण तेज गति से चलाने लगी थी । लेंडुर की ओर ऊंचाई की तरफ बढ़ती गई हेलिकॉप्टर अचानक रडार से गायब हो गई थी । कुछ रसूख धारी लोग थे
। स्थानीय प्रशासन हरकत में आ गई थी ,मगर उस
रात धुन्ध की भयानक रात में रेसक्यू वर्क स्थगित कर देना पड़ा था ।
उस हेलिकोप्टर के साथ , पद्मा भी न जाने कहाँ गुम हो गई थी । कहीं कोई ,कोई सुराग नहीं मिला था । कई दिनों बाद उस हेलिकोप्टर का मलबा मिला था उसी पीले मंसूर वाले झाड़ियों में। लेकिन वहाँ एक भी शव नहीं मिला था । शायद वह,अभिशप्त यक्षिणी ,अपना आखिरी जन्म समाप्त कर , वापस अपने स्थान पर लौट गई थी ।
डॉ कामिनी कामायनी
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